Wednesday 16 December 2009

इलाज ''तौबा-तौबा"

वो और जमाना था जब हम अपनी 'इंजीनियरिंग कला' पर गर्व किया करते थें। घर पर कोई छोटा ट्रांजिस्टर, हिटर या ऐसा ही कोई सामान खराब होता था, तो खुद ही उसके नट-वोल्ट खोल-कस लेते थे। इस पर ताज्जुब यह कि इतनी सी इंजीनियरिंग से सामान चल निकलता था और हम अपनी फतेह का जश्न मनाने लगते थे।पर इस दुनिया की बढ़ती जटिलता के साथ-साथ तकनीकें भी पेंचीदा होती जा रही हैं। और इसी वजह से हर मर्ज के लिए विशेषज्ञ डॉक्टर भी। आज हर गली के नुक्कड़ और चौराहे पर तकनीकी बीमारी के इलाज के लिए अपनी दुकान खोले बैठे डॉक्टर बड़े आम हैं। इसे हम सर्विसिंग सेंटर के नाम से बखूबी पहचानते हैं। जिस तरह आज गले, नाक, कान, दिल, फेफड़े हर अंग के लिए अलग डॉक्टर होता है उसी तरह हर तकनीकी सामान के इलाज के लिए अलग तकनीशियन आपकी सेवा में हाजिर है।

पर एक जानकार डॉक्टर और एक झोलाछाप डॉक्टर का जो फर्क होता है वही फर्क आपको ऐसी सेवाओं में भी नजर आएगा। और शर्त लगा लीजिए सही इलाज न हुआ, तो मर्ज के नासूर बनने पर जो दर्द होता है, वही दर्द आप महसूस भी करेंगे। कुछ ऐसा ही दर्द जब मुझे झंझोर गया, तो हाथ अपने आप लिखने को चल पड़े। शायद ये उसी पुराने जुम्ले 'दर्द बांटने से कम होता है' का असर है। जानती हूं पुराना है पर जब कोई चीज चुभती है, तो इलाज महत्वपूर्ण होता है, चाहे एलोपैथी हो या आयुर्वेद।

खैर मुद्दे पर आते हैं। कुछ दिनों पहले मेरा एक मोबाइल सेट खराब हो गया था। सेट एक बहुत ही नामी कंपनी का था जिससे लिए आज के बड़े सितारे टीवी पर आपको लुभाने के जतन करते नजर आते हैं। मेरे हैंडसेट में कई बीमारियां थी। बाकी का तो नहीं पता पर इतना जरूर समझ आता था कि उसका डिस्प्ले काम नहीं करता था और स्पीकर में भी कुछ खराबी थी। ''सौभाग्य'' से मेरे घर के पास ही उस कंपनी का सर्विसिंग सेंटर था।

मेरा वो पहला मोबाइल सेट था करीबन 3 साल पुराना और इसे मैंने बड़े प्यार से आज तक संभाला था। अपने बीमार बच्चे को जिस दर्द और आस से कोई मां-बाप डॉक्टर के पास ले जाते हैं, सर्विसिंग सेंटर जाते समय कुछ वैसा ही मेरा हाल था, लेकिन....

अपनी बेहतरीन सेवा का दावा करने वाली नीजि कंपनी के सर्विसिंग सेंटर में घुसते ही मुझे किसी गांव के सरकारी अस्पताल सा अहसास हुआ। काउंटर से लेकर दरवाजे तक लंबी लाइन लगी थी। पर पूरी कोशिश करने के बाद भी मुझे समझ नहीं आ रहा था कि लाइन शुरू कहा से होती है और खत्म कहां होती है। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे के जद्दोजहद के बाद मैं काउंटर तक पहुंची। वहां एक लड़की बैठी थी। उसे मैंने अपना सेट दिखाया और और जो बीमारियां समझ आ रही थी, बताई। मैंने पूछा ठीक होने में कितना खर्चा आ जाएगा। उसने सीधा कहा,'बिना इंस्पेक्शन के हम कुछ नहीं कह सकते। सेट खोलने का चार्ज 85 रुपये है, वो दीजिए आपके सेट का अभी इंस्पेक्शन करके बताते हैं क्या बीमारी है और कितना खर्च आएगा।' मैंने फिर भी जोर दिया कि मुझे एक बार कोई लगभग सा ही खर्चा बता दीजिए कि मैं तय कर पाऊं कि मुझे सेट बनवाना चाहिए या नया ही ले लूं।

काउंटर के अंदर पास ही में खड़े एक ''सज्जन'' मेरी बात काफी देर से सुन रहे थे। मैं भी यह गौर कर रही थी कि वो मेरी बातों में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे थे। मैं इतना तो समझ रही थी कि वो भी सर्विसिंग सेंटर से ताल्लुक रखते हैं। खैर, वो जनाब थोड़ा नजदीक आए और मेरा सेट हाथों में लेकर देखने लगे और बड़ी कड़क आवाज में उस मोहतरमा से पूछा क्या हो रहा है? उसने 'सर' कहकर जवाब दिया। तक मुझे पता चला कि वो जनाब सर्विसिंग सेंटर के हेड हैं। जो भी हो मुझे लगा कि अब मेरी थोड़ी मदद हो जाएगी। पर मैं गलत थी।

उनके हाव-भाव से तो मुझे साफ समझ आ रहा था कि फोन ठीक करना तो कभी उनका काम ही नहीं रहा। आने-जाने वाली लड़कियों पर कैसे इम्पे्रशन झाड़े, इसी कोशिश में उनका वक्त बीतती है। उनके बेवजह केऐटीट्यूड को नजरअंदाज करते हुए मैंने उनसे भी पूछा,'मेरे सेट को ठीक करने में कितना खर्च आएगा?' उसने सेट को उलट-पलट कर देखा और जोर से टेबल पर पटक दिया। मेरी आधी सांस तो वहीं अटक गई। आज तक मैंने कभी सेट के साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया था। मैंने फिर पूछा,'ठीक नहीं होगा क्या? क्या हो सकता है?'जैसे मरीज को कैंसर या ब्रेन ट्यूमर जैसी बीमारी होने की खबर देते समय कोई डॉक्टर गंभीर हो जाता है, वैसे ही आवाज में पूरी गंभीरता भरते हुए उसने कहा,'देखिए आपके सेट में खराबी तो काफी है, एक बार इंस्पेक्शन करा लीजिए, पता चल जाएगा कितना खर्च हो सकता है।' एक मोटा-मोटी खर्चा पूछने पर उसने कहा इसको बनाने में 300 रुपये भी लग सकते हैं, 1,500 रुपये भी लग सकते हैं या 3,000 का भी खर्च आ सकता है। मुझे इस आकलन में कोई तुक नजर नहीं आया। अगर मैं 300 मानकर बनाने को दे दूं और खर्चा 3,000 आ जाए, तो मैं क्या करूंगी? खैर मैंने काफी सोच-विचार कर कहा कि ठीक है आप इंस्पेक्शन कर लीजिए और 1,500 रुपये तक खर्च आता है, तो मैं बनवाउंगी। उससे ज्यादा पैसे मैं नहीं दे सकती। उसने मुझे एक फार्म थमाया और फोन को इंस्पेक्शन की लाइन में लगा दिया।

एक घंटे बाद मेरा नंबर आया और आश्चर्यजनक रूप से उसने कुल खर्चा 1,590 रुपये बताया। उसने दावा किया कि इस खर्च में मेरा फोन बिल्कुल ''नया'' हो जाएगा। मुझे लगा अगर मैं 3,000 रुपये के खर्चे के लिए तैयार हो जाती, तो वो मुझे इतना का ही बिल बता देता। मैंने उससे पूछा इसमें क्या-क्या खराबी है? उसने मुझे बताया, इसका डिस्प्ले खराब है, बैटरी भी ठीक से काम नहीं कर रही और लाइट में भी दिक्कत है। मैंने पूछा, 'इसके कवर पर भी काफी स्क्रैच आ गए हैं, आप उसे भी बदलेंगे ना?' मुझे जवाब मिला,'नहीं, आपको अलग से कवर खरीदना होगा।' मैंने भी पलट कर पूछा,'तो सेट को नया करने का क्या मतलब हुआ?'मैंने सीधा कहा,'अगर इसी खर्च में कवर बदलते हैं, तो सेट बनवाउंगी नहीं तो जाने दीजिए।' जनाब मान गए। भला पैसे किसे काटते हैं?

फिर मेरा ध्यान गया कि मेरे सेट में तो स्पीकर भी खराब है और इसका जिक्र इंस्पेक्शन में नहीं है। मैंने इसके लिए भी पूछा। जवाब सुनकर मुझे लगा शायद मुझे काउंटर के अंदर और उसे बाहर होना चाहिए। 'क्या इसका स्पीकर भी खराब है? आपने बताया नहीं।'मेरा गुस्सा अब आपे से बाहर हो रहा था। मैंने कहा, 'आपने किस तरह का इंस्पेक्शन किया है, ये बीमारी आपको समझ नहीं आई? ये भी मैं ही बताऊं तो आपने 85 रुपये लिए किस बात के हैं?'सारी बहस के बाद मैंने 1,500 रुपये के खर्चे को मानते हुए अपना फोन बनने को दे दिया। मुझे एक कागज देते हुए उसने हफ्ते भर बाद आने को कहा। उस कागज में कोई कॉन्टैक्ट नंबर नहीं था। मैंने जब नंबर मांगा, तो उन जनाब ने बड़े भाव के साथ अपना पर्सनल नंबर मेरे कागज पर लिखा और कहा,'यू कैन कॉल मी एनी टाइम, अवेलेबल 24 ऑवर, स्पेशली इन योर सर्विस।' अगर मैने अपना फोन उसे न दिया होता, तो एक थप्पड़ जरूर रसीद कर दिया होता।

मैंने कभी फोन तो नहीं किया, हफ्ते भर बाद अपना फोन लेने मैं सर्विसिंग सेंटर गई। फिर उन्हीं जनाब से पाला पड़ा। चेहरा देखते ही मन गुस्से से भर गया था। पर गुस्से को काबू में करते हुए दो मिनट की बात मानते हुए मैंने फोन के बारे में पूछा। फोन वैसा का वैसा लौटाते हुए उन्होने कहा इसमें बहुत खराबी है, यह नहीं बन सकता। गुस्सा तो इतना बढ़ गया था कि ज्वालामुखी की तरह फूटता, पर मैं कुछ कहे बिना बाहर निकल गई। मुझे समझ आ गया था कि पत्थर पर सर मारने का कोई फायदा नहीं। इन झोलाछाप डॉक्टर साहब के पास जख्म का इलाज नहीं सिर्फ नमक मिल सकता है।

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