खामोश जुबां पर एक थरथराहट, जमीं नब्ज में थोड़ी गर्माहट, उंगलियों में एक कलम, और हाथों में लिखने की ताकत, कहते हैं काफी है क्रांति के लिए... क्या वाकई?
Saturday 21 March 2009
मीडिया में मंदी: सच या झूट
मीडिया पर मंदी की मार को लेकर हर कोई परेशान है । लेकिन देश में मंदी की शुरुआत के समय से लोगों का काफी बड़ा समूह ये मान रहा है कि मीडिया में मंदी उतनी नहीं है जितनी दिखाई गई है। पर क्या अभी भी वही बात है ? देश में मंदी गर्त में भले न हो पर ये गिरावट स्थायी जरूर होने लगी है । ऐसे में अब मंदी सच में मीडिया को प्रभावित करने लगी है । पिछले चार पॉँच सालो में मीडिया ने काफी तरक्की की थी लेकिन ऐसे में बिना सोचे समझे कदम उठाय गए । जितनी जरूरत थी उससे ज्यादा लोगों को नौकरी दी गई। विस्तार और विकास का पूरा फायदा उठाया गया । और अब जब मंदी का माहौल है तो फालतू खर्चों को कम किया जा रहा है। लेकिन अब हालत इतने पर ही नहीं है। सच तो ये है की मीडिया इंडस्ट्री की हालत बहुत ख़राब हो चुकी है।विज्ञापन के पेट्रोल से चलने वाली मीडिया की गाड़ी पंक्चर न सही पर उसकी हवा जरूर निकल चुकी है। मंदी से परेशान सभी कंपनिया अपने विज्ञापन खर्चों में काफी कटौती कर रही हैं । दिल्ली और मुंबई में विज्ञापन की संख्या में लगभग चालीस प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे में विज्ञापन दरों में कमी की जा रही है। फिक्की ( के पी एम जी ) की रिपोर्ट के अनुसार प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में अनियंत्रित तरीके से विज्ञापन दरों में कमी की गई है। लाभ घटने के कारण लोगों को नौकरियों से निकला जा रहा है और नई भर्तियाँ बंद कर दी गई है। लेकिन ये काम इतनी तेजी और आसानी से इसलिए किया जा रहा क्योंकि सच में उन्हें उनकी जरूरत कभी थी ही नहीं । कुछ कम कर्मचारियों से भी उनका काम हो रहा है।इसलिए हालत तभी सुधर सकते हैं जब फ़िर से विस्तार का माहौल बने । किसी संस्था के वर्तमान अख़बारों या चैनल्स में तो नौकरियां मिलने की संभावना बहुत कम है। हाँ जब नए संस्करण शुरू किए जायेंगे तो कुछ उम्मीद की जा सकती है । लेकिन अगर मंदी और गहराई तो हालात और बुरे होंगे। और अब तो महगाई दर एक प्रतिशत से भी कम होने के बाद यही डर सता रहा है ।
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