कल वो मेरे पास मिठाई लेकर आई थी। बहुत खुश लग रही थी। हो भी क्यों नहीं मैट्रिक के एग्जाम में फस्ट डिविजन से पास जो हुई है। पास होने पर उसे नया सलवार कुर्ता मिला है। हां सलवार कुर्ता ही, उसके अलावा कोई मॉर्डन ड्रेस में उसे कभी देखा भी नहीं।
नीरू बस 16 साल की है। लेकिन जींस-टीसर्ट का साथ तो चार पांच साल पहले ही छूट गया। अम्मा (दादी) की सख्त हिदायत है। 'नीरू तुम बड़ी हो गई हो, ऐसे कपड़े शोभा नहीं देते।' दो दिन पहले नीरू की छोटी बहन श्रुति मुझसे मिलने आई थी। नौ साल की है, लेकन बातें एकदम चुगली आंटी जैसी। कह रही थी, 'अम्मा ने नीरू की एक अच्छी सी जींस कुड़े वाले को दे दी। दो साल पहले उसकी सब टीसर्ट बदल कर बर्तन खरीद लिए।'
कल मेरी छुट्ïटी थी। हर छुट्ïटी के दिन की तरह कल भी मैं बच्चों के साथ खेलने गई थी। अम्मा की सब बहुएं ब्यूटी पार्लर जा रही थीं। बिना कुछ सोचे समझे मैंने छोटी भाभी से कहा, 'नीरू को भी साथ क्यों नहीं ले जाती। इतनी बड़ी हो गई पर कुछ नहीं करती। अब मेकअप शेकअप की थोड़ी बहुत अक्ल तो होनी ही चाहिए।' भाभी का जवाब ऐसा था मानो ऐसी छोटी छोटी बात भी समय और नियति से तय होती है। 'अरे समय के साथ सब करने लगेगी। अभी कौन सी जरूरत है। और नीरू को इन सब का क्या करना है। घरेलू लड़की है।' मुझे फिर भी सब मजाक ही लग रहा था। मैंने भी नीरू को थोड़ा मुंहफट बनाना चाहती थी। अब भाभी से बतकही ना करेगी तो किससे करेगी। मैंने कहा, 'यार भाभी को तो तेरा जरा भी खयाल नहीं है, तू मेरे साथ चल। दो दिन रह मेरे साथ तेरा थोड़ा हुलिया सुधारना है। फिर देखना भाभी भी तेरी नकल उतारेंगी।' इतने हल्के फुल्के माहौल में नीरू के ऐसे जबाव की उम्मीद नहीं थी। 'दी आप मुझे अपने जैसी क्यों बनाना चाहती हो, मैं कौन सा नौकरी करने जाती हूं। घर पर ही रहती हूं हमेशा। जैसे है अच्छा है। मुझे तो बाहर निकलने से भी डर लगता है।' घर की सबसे बड़ी और समझदार लड़की। बाकी सारे बच्चों पर रौब दिखाने वाली नीरू को घर से बाहर निकलने में डर लगता है।
नीरू किसी गांव देहात में नहीं, दिल्ली में रहती है। यहीं जन्मी, यहीं पली बढ़ी। उससे मिली तो कभी कुछ अजीब नहीं लगा। एक आम सी खुशमिजाज लड़की। मगर पहनावा ओढ़ावा मुझसे भी बड़े जैसा। इसमें उसकी मर्जी होती, तो कोई मुश्किल नहीं थी। लेकिन कोई उसके लिए ड्रेस कोड तय करे और वो भी दिल्ली में रह कर ऐसा तालीबानी फरमान, तो दिक्कत है। और हो भी क्यों नहीं, सलवार कुर्ते में किसी को बांध कर रखना, उसकी सोच पर भी पाबंदी लगाने की गारंटी है क्या? या जींस टीसर्ट पहनने वाली हर लड़की संस्कार से भी विदेशी हो जाती है?
सवाल तो कई हैं, लेकिन इतना पता है उस घर में ना अम्मा की सोच बदलेगी, ना नीरू की दुनिया। मेरी छोटी सी ख्वाहिश अधूरी ही रहने वाली है।..
खामोश जुबां पर एक थरथराहट, जमीं नब्ज में थोड़ी गर्माहट, उंगलियों में एक कलम, और हाथों में लिखने की ताकत, कहते हैं काफी है क्रांति के लिए... क्या वाकई?
Wednesday 6 July 2011
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The longing for the impossible
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