What is containment in life.. when there is lesser yearning for things and an usual sense of satiated desires. But, what an strange feeling it is to have longing for the past more than the excitement for the future. That is definitely not a sign of a content soul. I do not want to categorise this feeling of mine... but just for a context, it may be like some midlife crisis or it's due to all the uncertainties about the future .. I often feel like going back in the past.. visiting some of the long forgotten memories. I certainly do not want to change anything. I only wish to stay in those moments for a while.. relive those experiences and feel the emotions once more. Often when I close my eyes, there are many such events passing in front of my eyes as a film reel and I feel the urge to pick some of them and enter into the frames.
straight forward
खामोश जुबां पर एक थरथराहट, जमीं नब्ज में थोड़ी गर्माहट, उंगलियों में एक कलम, और हाथों में लिखने की ताकत, कहते हैं काफी है क्रांति के लिए... क्या वाकई?
Tuesday, 12 January 2021
Saturday, 19 December 2020
सपनें...
फिर गिरा एक सपना
टूटते तारे जैसा
मैं कोसती रही आँखों को
मेघ सी काली कहलाती हो
और एक तारा भी न संभाल सकी
उस आसमान की तरह।
फिर फिसला मोती बन के
मैं कोसती रही आँखों को
सीप सी चमक पर इतराती हो
और एक मोती भी न सहेज सकी
उन सीपियों की तरह।
बोली मेरी आँखें
"तुम चुनती हो
टुकड़े और
किरचें चुभती हैं मुझको,
हज़ार किरचों को अपनी सीपी में
समेट
मैं बनाउंगी
हज़ार तारे, हज़ार मोती
जिन्हें तुम सजाना अपने सिर के
ताज़ में,
और...
और.. कोई सपना होगा टूटने के
लिए..
फिर चुनना तुम हज़ार टुकड़े
और मैं बुनुंगी
एक सपने से
हज़ार तारे, मोती
हज़ार नए सपनें"...
Friday, 18 December 2020
All journeys are beautiful and unique... Respect!!
It's so unpleasant and ironic to observe how people demean other's life struggles. When I am surrounded by career-oriented women, I hear a lot about their lonely lives, how demanding and hard it is, and comparing how easy it is for women at home.
When I am surrounded by women who are mostly house makers, I hear the opposite... how hard it is to manage a family, and kids at "the right time", and how easy (selfish) it is for women who don't have those responsibilities yet.
I could never understand this rivalry between the two sides of the same coin. Why can't people respect each other's struggles and choices they made in the best possible ways they thought. It's just what we choose to do. I am sorry if one would say It's not only about choices.. but circumstances. If someone fought and lead a life which she wanted but others disapproved of, it was her choice. Likewise, If someone surrendered to the circumstances and went on a given path, it's again her choice not to fight enough. Comparison is the silliest lens to see different lives. But respect and embracing the uniqueness of each other's journeys will lead us to a beautiful together. 💞
Thursday, 18 June 2020
ख़याल...
कल रात एक ख्वाब आँखों से उतर गया |
कल रात ओस की एक बूँद पलकों पर ठहर गयी,
कल रात आंसू का एक कतरा गालों से ढलक गया |
कुछ सोच कर पीला पड़ता गुलाब कल रात बेवजह सुर्ख खिल गया,
एक अरसे से कलम से जुदा मेरा ख़याल,
कल रात शब्द दर शब्द मेरी डायरी में उतर गया|
कोशिश...
कोशिश एक नया कल बनाने की,
कोशिश मोतियों की अधगुथी माला लहरों में बहाने की,
कोशिश सीपियों से नयी मोतियाँ जुटाने की...
Wednesday, 6 July 2011
नीरू...
नीरू बस 16 साल की है। लेकिन जींस-टीसर्ट का साथ तो चार पांच साल पहले ही छूट गया। अम्मा (दादी) की सख्त हिदायत है। 'नीरू तुम बड़ी हो गई हो, ऐसे कपड़े शोभा नहीं देते।' दो दिन पहले नीरू की छोटी बहन श्रुति मुझसे मिलने आई थी। नौ साल की है, लेकन बातें एकदम चुगली आंटी जैसी। कह रही थी, 'अम्मा ने नीरू की एक अच्छी सी जींस कुड़े वाले को दे दी। दो साल पहले उसकी सब टीसर्ट बदल कर बर्तन खरीद लिए।'
कल मेरी छुट्ïटी थी। हर छुट्ïटी के दिन की तरह कल भी मैं बच्चों के साथ खेलने गई थी। अम्मा की सब बहुएं ब्यूटी पार्लर जा रही थीं। बिना कुछ सोचे समझे मैंने छोटी भाभी से कहा, 'नीरू को भी साथ क्यों नहीं ले जाती। इतनी बड़ी हो गई पर कुछ नहीं करती। अब मेकअप शेकअप की थोड़ी बहुत अक्ल तो होनी ही चाहिए।' भाभी का जवाब ऐसा था मानो ऐसी छोटी छोटी बात भी समय और नियति से तय होती है। 'अरे समय के साथ सब करने लगेगी। अभी कौन सी जरूरत है। और नीरू को इन सब का क्या करना है। घरेलू लड़की है।' मुझे फिर भी सब मजाक ही लग रहा था। मैंने भी नीरू को थोड़ा मुंहफट बनाना चाहती थी। अब भाभी से बतकही ना करेगी तो किससे करेगी। मैंने कहा, 'यार भाभी को तो तेरा जरा भी खयाल नहीं है, तू मेरे साथ चल। दो दिन रह मेरे साथ तेरा थोड़ा हुलिया सुधारना है। फिर देखना भाभी भी तेरी नकल उतारेंगी।' इतने हल्के फुल्के माहौल में नीरू के ऐसे जबाव की उम्मीद नहीं थी। 'दी आप मुझे अपने जैसी क्यों बनाना चाहती हो, मैं कौन सा नौकरी करने जाती हूं। घर पर ही रहती हूं हमेशा। जैसे है अच्छा है। मुझे तो बाहर निकलने से भी डर लगता है।' घर की सबसे बड़ी और समझदार लड़की। बाकी सारे बच्चों पर रौब दिखाने वाली नीरू को घर से बाहर निकलने में डर लगता है।
नीरू किसी गांव देहात में नहीं, दिल्ली में रहती है। यहीं जन्मी, यहीं पली बढ़ी। उससे मिली तो कभी कुछ अजीब नहीं लगा। एक आम सी खुशमिजाज लड़की। मगर पहनावा ओढ़ावा मुझसे भी बड़े जैसा। इसमें उसकी मर्जी होती, तो कोई मुश्किल नहीं थी। लेकिन कोई उसके लिए ड्रेस कोड तय करे और वो भी दिल्ली में रह कर ऐसा तालीबानी फरमान, तो दिक्कत है। और हो भी क्यों नहीं, सलवार कुर्ते में किसी को बांध कर रखना, उसकी सोच पर भी पाबंदी लगाने की गारंटी है क्या? या जींस टीसर्ट पहनने वाली हर लड़की संस्कार से भी विदेशी हो जाती है?
सवाल तो कई हैं, लेकिन इतना पता है उस घर में ना अम्मा की सोच बदलेगी, ना नीरू की दुनिया। मेरी छोटी सी ख्वाहिश अधूरी ही रहने वाली है।..
Tuesday, 19 January 2010
एक कदम...
'महान' कदम, इसलिए नहीं कि वो एक बड़े नेता थे। आज के जमाने में सामाजिक कल्याण के लिए किए गए एक छोटे से प्रयास को भी मैं महान कहूंगी। चाहे वो कोई राजनेता हो या फिर कोई नामी हस्ति या फिर एक आम इंसान। इस तरह का प्रयास हमेशा सराहनीय होता है।
हाल ही में सचिन तेंडुलकर भी पानी बचाने की मुहीम से जुड़े हैं। सचिन भी इस अच्छे काम से जुड़कर काफी खुश हैं। इस तरह के कई सामाजिक प्रयासों से नामी-गिरामी हस्तियां जुड़ती रहती हैं।पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम से अमिताभ बच्चन काफी दिन से जुड़े हैं। 'दो बूंद जिंदगी के' वाक्य को सुनते ही अमिताभ बच्चन का चेहरा सामने आ जाता है। उनके साथ शाहरुख और सचिन भी इस कार्यक्रम से जुड़े। शाहरुख खान ने उस वक्त अमिताभ बच्चन के साथ यह विज्ञापन किया था जब उन दोनों के बीच मनमुटाव के खासे चर्चे थे। पर सामाजिक मसले पर वे साथ आए। यह काफी सराहनीय है।
'आप अपने जाने के बाद दुनिया को क्या देकर जाएंगे?' यह सवाल मैं नहीं ऐश्वर्या राय किया करती थी। काफी लंबे समय तक नेत्रदान के लिए उनका यह विज्ञापन चैनलों पर आता रहा। एड्स जागरुकता कार्यक्रम से तो तमाम सेलिब्रिटीज जुड़े।पर इस तरह के कायक्रमों से हस्तियां तो जुड़ रही हैं, लेकिन कारर्पोरेट दबाव ऐसे कार्यक्रमों को भी नहीं छोड़ता। इस तरह के विज्ञापन सिर्फ दरदर्शन पर ही आते हैं। बड़े मनोरंजन चैनलों पर शायद ही कभी आपको ऐसा कुछ देखने को मिले। इस वजह से लोगों तक खासकर ऐसे लोग लोग ऐसे प्रयासों में बड़ी मदद दे सकते हैं, वो इनसे अछूते ही रह जाते हैं।
हाल फिलहाल में एक नया विज्ञापन तमाम चैनलों पर देखने को मिल रहा है। विज्ञापन में कुछ भी नहीं है। यह बिल्कुल सादा है। किसी टाइपराइटर की तरह स्क्रीन पर दो वाक्य लिखे जाते हैं। दरअसल यह विज्ञापन नहीं, विज्ञापन के खिलाफ विज्ञापन है। इसमें कहा जाता है कि अगर आपको ऐसा लगता है कि कोई विज्ञापन झ़ठा प्रचार कर रहा है और आपको धोखा दे रहा है, तो आप इसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं। कुछ अर्से पहले टीवी अदाकारा प्रिया तेंडुलकर ऐसा ही विज्ञापन किया करती थी। पर उनके मरने के बाद इससे कोई नहीं जुड़ा और विज्ञापन स्क्रीन से गायब हो गया। अब फिर से यह प्रयास शुरू हुआ है जो बहुत अच्छा है। इसके असर के इंतजार में.....
The longing for the impossible
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