Thursday 17 December 2009

वाह क्या सीन है!

बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के मसले पर लगभग पूरा विश्व कोपेनहेगन में जमा है। 192 देशों के प्रतिनिधि अपनी-अपनी चिंता जाहिर करने और दूसरों को जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाने वहां मौजूद हुए हैं। या यूं कहें कि कोपेनहेगन में अपना दुखड़ा रोने और सामने वाले से उसकी भरपाई निकलवाने का अच्छा मंच सजा हुआ है। हरेक देश खुद को निरीह-निर्दोष साबित करने में लगा है।

खैर विश्व स्तर पर क्या-क्या किया जा सकता है इस बात पर बहस, चिंता और, अ-निर्णय का दौर जारी है। पर सभी इस बात पर जरूर सहमत दिखते हैं कि प्रयास अपने और दूसरे दोनों स्तरों पर किया जाना चाहिए। दूसरों की जिम्मेदारियां तय करना तो हमारा प्राकृतिक गुण है। पर अपना स्तर कभी याद नहीं आता। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मैं विश्व स्तर पर इस तरह के बैठकों को निरर्थक कह रही। बड़ पैमाने पर हो रहे नुकसान को नियंत्रित करने के लिए यह बेहद जरूरी है। पर छोटे स्तर केप्रायासों के बिना नहीं।

कई लोग इस बात को लेकर चिंतित भी दिखते हैं, तो वो ये सोचकर ज्यादा परेशान रहते हैं कि आखिर वो क्या कर सकते हैं? यह भी अच्छा मजाक है। पर्यावरण प्रदूषण और बढ़ते तापमान को रोकने के लिए आम इंसान क्या कर सकता है, यह एक स्कूल का बच्चा भी बता सकता है। इसलिए अगर कोई इतना ही परेशान है अपनी जिम्मेदारियों को लेकर, तो अपने घर के किसी बच्चे से एक क्लास लेने में क्या बुराई है।

अपनी रोज की उसी दुनिया में राह चलते, हर दिन के उन्हीं कामों केबीच अगर आप एक बार इस नजर से सजग होकर देखें, तो आपको भी वजहें और उसका हल दोनों आसानी से नजर आ जाएंगे।कल सुबह जब आप उठे, तो सूरज की ताजा रौशनी के लिए घर की खिड़कियां और दरवाजे खोलने के बाद लंबी अंगड़ाई के बीच घर के ट्यृब और बल्बों पर भी नजर दौड़ाएं। कहीं न कहीं सूरज की रौशनी में खुद की रौशनी धूंधली पाता कोई बल्ब जलता जरूर दिख जाएगा।

आप अपने स्तर से बहुत कुछ कर सकते हैं, पर कई बार इसमें अगर किसी का फायदा प्रभावित होता है, तो जरूर मुश्किल खड़ी हो जाती है। मैं दिल्ली के एक छोटे से गल्र्स पीजी में रहती हूं। वहां फ्रीज की भी सुविधा है। हालांकि इसका बिजली बिल हमें ही भरना होता है। 5 रुपये यूनिट। हर महीने एक छोटी सी आमदनी पाने वाले किसी भी इंसान के लिए फिजूल में खर्च हुआ एक-एक रुपया बहुत मायने रखता है। इस ठंढ़ में जब यह लगने लगा कि फ्रीज का खर्च फालतू होता जा रहा है और इसकी जरूरत नहीं है। तो कुछ लड़कियों ने मिलकर पीजी के मालिक से कुछ महीनों के लिए फ्रीज बंद करने की गुजारिश की। पर लैंडलॉर्ड को 5 रुपये प्रति यूनिट की आमदनी बंद होना कैसे बर्दाश्त होता। फ्रीज क्या बंद होता, हमें बाहर निकल जाने का फरमान सुना दिया गया। पर बहुमत की वजह से कम से कम हमें पीजी से निकाला नहीं गया। पर फ्रीज का क्या? फ्रीज तो आज भी चल रहा है, पर इसके खिलाफ जाने वाले लोगों को उससे बेदखल कर दिया गया है।

ये तो था मेरा घर, अब मेरा ऑफिस। यहां एक बहुत ही आरामदायक माहौल देने की पूरी कोशिश की गई है। बाहर दो-दो स्वेटर की जरूरत होने पर भी अंदर आप गर्मियों के कपड़े पहन कर आराम से घूम सकते हैं। स्वेटर या जैकेट पहन के घूसे, तो बिना उतारे काम नहीं कर सकते। पसीने छूटने लगते हैं। मस्त गुनगुना मौसम।

पर अंदर का तापमान इस कदर नियंत्रित करने में किस कदर एयर कंडिशन और हिटर का इस्तेमाल किया जाता होगा, इसका अंदाजा आप भी लगा सकते हैं।दिल्ली के कर्मिशियल इलाकों में ऐसे ऑफिसों की गिनती करना मुश्किल है। अब इन ऑफिसों में अच्छी तनख्वाह उठाने वाले लोग क्या घर पर ऐसा गुनगुना आनंद नहीं चाहेंगे। एसी, हिटर और गीजर के बिना घर भी कोई घर होता है? क्यों?

घर और ऑफिस केबीच का हिस्सा तो मैंने अब तक जोड़ा ही नहीं। दिल्ली की नसें, यहां की बसें। पर अब ये भी थोड़ी महंगी हो गई हैं। लोगों को ज्यादा से ज्यादा सुविधा देने के लिए सरकार बसों की खेप पर खेप शुरू कर रही है। वहीं, किराया बढऩे के बाद नजदीकी दूरी का सफर करने वालों को बस की बजाए अपनी गााड़ी या बाइक ज्यादा सस्ती और आसान लग रही है। इस तरह अब रास्तों पर दोहरा बोझ पड़ रहा है।अब इसके बाद कोई विश्व स्तर की बैठक और बड़े-बड़े नेताओं की बातों और कोपेनहेगन पर हैरान-परेशान होता दिखता है, तो किसी कमर्शियल बॉलीवुड फिल्म का मेलोड्रामा सीन आंखों के सामने उभर आता है।

Wednesday 16 December 2009

अब नहीं डराते वो चेहरे

एक ऐसे शहर में जहां आप अकेले रह रहे हों, और बहुत कम जान-पहचान वाले हों, वहां किसी दूसरे की थोड़ी सी भी मदद भगवान के हाथ से कम नहीं लगती। अगर किसी से दो-चार मुलाकातों में जान-पहचान हो जाए और वो आपकी रोजमर्रा की मुसीबतों को थोड़ा हल्का करे, तो सच में कोई भी अहसानमंद हो जाए। पर शायद जिंदगी इतनी आसान भी नहीं है।
कुछ अनचाहे वाकयों के बाद अब मुझे दिल्ली में अकेले रहते हुए अपनी एक टीचर का तकिया कलाम बहुत याद आता है। 'देयर इज नो फ्री लंच'! सच भी है, इस दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता। आज आपकी मदद करने वाला कोई हाथ अगर आगे आता है, तो बदले में उसे भी कुछ चाहिए होता है। और कुछ नहीं तो चाहे अनचाहे आप उसके मनोरंजन का जरिया तो जरूर बन जाते हैं। हो सकता है कई लोगों का तजुर्बा मुझसे जुदा हो।
पढ़ाई पूरी करने के बाद मेरी पहली नौकरी दिल्ली में ही लगी। आज मैं दूसरे संस्थान में काम कर रही हूं। छोटे से शहर से दिल्ली आने के बाद करीब 9 महीने मैंने सिर्फ हॉस्टल में ही बिताए। पर पढ़ाई पूरी होने के बाद मुझे हॉस्टल से बाहर रहने को मजबूर होना पड़ा। पर मैं अकेले किसी फ्लैट में रहने की हिम्मत नहीं जुटा सकी। इसलिए एक गल्र्स पीजी का रास्ता पकड़ा। मेरा पुराना ऑफिस दिल्ली के न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में था। पीजी से बस से वहां पहुंचने में करीब 40-45 मिनट लग जाते हैं। मैंने उस ऑफिस में करीब 7 महीने काम किया था। एक ही रास्ते से रोज का आना-जाना। उस रूट पर चलने वाली लगभग सारी बसों में मेरी जान-पहचान हो गई थी। मेरी तरह रोज सफर करने वालों से भी और कंडक्टरों से भी। पर मेरी कोशिश हमेशा होती थी कि मैं थोड़ा सीमित ही रहूं। अनजाने शहर में बहुत ज्यादा घुलना-मिलना ठीक नहीं होता। खैर कंडक्टरों से जान-पहचान का फायदा यह मिलता था कि मुझे बैठने को सीट मिल जाती थी। और राहगीरों से कुछ खुशनुमा पल। लेकिन धीरे-धीरे इस पहचान का नुकसान मेरी समझ मे आने लगा। जानने पहचानने वाले लोग बस स्टॉप पर इंतजार करते थे। जब आपके ना चाहने पर कोई आपमें ज्यादा दिलचस्पी ले और जरूरत से ज्यादा चिंता करने वाला बने तो, निजता में खलल लगती है। कुछ ऐसा ही मुझे लगता था। मैं इसलिए अपने समय से कुछ पहले या कुछ देर से घर से या ऑफिस से निकलने लगी। ताकि उन लोगों से पीछा छूटे। पीछा छूट भी गया। पर मुसीबत बस में खड़ी हो गई। मैं पहले जिस बस से जाती थी, उसके बाद वाले में जाने लगी, तो पहली बस का कंडक्टर दूसरी बस के कंडक्टर से भिड़ गया। मुद्दा, तुमने मेरी सवारी कैसे छिनी? मुझे समझ नहीं आ रहा था, बस मेरी सेवा के लिए है या मैं बस की जागीर। चलो ये मसला भी समय के साथ सुलझ गया। नई बस में एक तय सीट मुझे मिलने लगी। पर उस दिन बहुत बुरा लगा जब मेरी सीट खाली करवाने पर एक जनाब कंडक्टर से भिड़ गए। मुझे भी इसमें उन जनाब की कोई गलती नहीं लगी। आखिर किसी एक सवारी की विशेष खातिरदारी क्यों। मुझे यह एहसास हुआ कि उस बस से रोज आने-जाने वाले दूसरे लोगों को ऐसी कोई विशेष सेवा नहीं मिलती थी। शायद मुझे इसलिए मिली कि मैं एक लड़की हूं।
रोज-रोज के झंझटों से तंग आकर मैंने ब्लू लाइन की बजाए डटीसी का रास्ता पकड़ा। ऑफिस से लौटते समय ब्लू लाइन के ठीक बाद डीटीसी मिला करती थी। मेरे सामने से ब्लू लाइन निकल जाती पर मैं नहीं चढ़ती। स्टॉप पर सभी चढऩे वालों को पुकारने में मेरे लिए विशेष आवाज होती थी। 'मैडम आ जाओ सीट दिला दूंगा।' मेरा बस में न चढऩा उस बस के कंडक्टरों में चिढ़ भरता गया। और इसका नतीजा मुझे भुगतना भी होता था। ऑफिस से निकलने में जरा सी देर हो जाए और डीटीसी ब्लू लाइन से पहले निकल जाए, तो मजबूरन मुझे ब्लू लाइन में ही चढऩा पड़ता था। और वो दिन किसी पहाड़ से कम नहीं होता था। चढऩे के साथ कोई न कोई फबती। 'लगता है आज डीटीसी नहीं आई..., 'शायद ऑफिस में देरी हो गई...', 'यार डीटीसी में भी भीड़ होने लगी है भाई...'। कई बार ऐसी बातों को अनसुना कर देती थी तो कई बार बात चुभ जाती तो पलट कर जवाब दे देती। पर रोज-रोज उसी रास्ते जाना-आना है, यह सोचकर ज्यादा उलझने से बचती थी। जानबूझकर मुसीबत बढ़ाना नहीं चाहती थी।
आज मैं दूसरे संस्थान में काम कर रही हूं। बहुत खुश हूं और सुकून भी है। संस्थान बदलने के पीछे रास्ते के ये बुरे तजुर्बे कहीं वजह नहीं बने। हां, पर इतना जरूर है करियर में तरक्की की खुशी में कहीं न कहीं इस बात की भी खुशी थी कि अब उन चेहरों को दोबारा नहीं देखना होगा।

इलाज ''तौबा-तौबा"

वो और जमाना था जब हम अपनी 'इंजीनियरिंग कला' पर गर्व किया करते थें। घर पर कोई छोटा ट्रांजिस्टर, हिटर या ऐसा ही कोई सामान खराब होता था, तो खुद ही उसके नट-वोल्ट खोल-कस लेते थे। इस पर ताज्जुब यह कि इतनी सी इंजीनियरिंग से सामान चल निकलता था और हम अपनी फतेह का जश्न मनाने लगते थे।पर इस दुनिया की बढ़ती जटिलता के साथ-साथ तकनीकें भी पेंचीदा होती जा रही हैं। और इसी वजह से हर मर्ज के लिए विशेषज्ञ डॉक्टर भी। आज हर गली के नुक्कड़ और चौराहे पर तकनीकी बीमारी के इलाज के लिए अपनी दुकान खोले बैठे डॉक्टर बड़े आम हैं। इसे हम सर्विसिंग सेंटर के नाम से बखूबी पहचानते हैं। जिस तरह आज गले, नाक, कान, दिल, फेफड़े हर अंग के लिए अलग डॉक्टर होता है उसी तरह हर तकनीकी सामान के इलाज के लिए अलग तकनीशियन आपकी सेवा में हाजिर है।

पर एक जानकार डॉक्टर और एक झोलाछाप डॉक्टर का जो फर्क होता है वही फर्क आपको ऐसी सेवाओं में भी नजर आएगा। और शर्त लगा लीजिए सही इलाज न हुआ, तो मर्ज के नासूर बनने पर जो दर्द होता है, वही दर्द आप महसूस भी करेंगे। कुछ ऐसा ही दर्द जब मुझे झंझोर गया, तो हाथ अपने आप लिखने को चल पड़े। शायद ये उसी पुराने जुम्ले 'दर्द बांटने से कम होता है' का असर है। जानती हूं पुराना है पर जब कोई चीज चुभती है, तो इलाज महत्वपूर्ण होता है, चाहे एलोपैथी हो या आयुर्वेद।

खैर मुद्दे पर आते हैं। कुछ दिनों पहले मेरा एक मोबाइल सेट खराब हो गया था। सेट एक बहुत ही नामी कंपनी का था जिससे लिए आज के बड़े सितारे टीवी पर आपको लुभाने के जतन करते नजर आते हैं। मेरे हैंडसेट में कई बीमारियां थी। बाकी का तो नहीं पता पर इतना जरूर समझ आता था कि उसका डिस्प्ले काम नहीं करता था और स्पीकर में भी कुछ खराबी थी। ''सौभाग्य'' से मेरे घर के पास ही उस कंपनी का सर्विसिंग सेंटर था।

मेरा वो पहला मोबाइल सेट था करीबन 3 साल पुराना और इसे मैंने बड़े प्यार से आज तक संभाला था। अपने बीमार बच्चे को जिस दर्द और आस से कोई मां-बाप डॉक्टर के पास ले जाते हैं, सर्विसिंग सेंटर जाते समय कुछ वैसा ही मेरा हाल था, लेकिन....

अपनी बेहतरीन सेवा का दावा करने वाली नीजि कंपनी के सर्विसिंग सेंटर में घुसते ही मुझे किसी गांव के सरकारी अस्पताल सा अहसास हुआ। काउंटर से लेकर दरवाजे तक लंबी लाइन लगी थी। पर पूरी कोशिश करने के बाद भी मुझे समझ नहीं आ रहा था कि लाइन शुरू कहा से होती है और खत्म कहां होती है। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे के जद्दोजहद के बाद मैं काउंटर तक पहुंची। वहां एक लड़की बैठी थी। उसे मैंने अपना सेट दिखाया और और जो बीमारियां समझ आ रही थी, बताई। मैंने पूछा ठीक होने में कितना खर्चा आ जाएगा। उसने सीधा कहा,'बिना इंस्पेक्शन के हम कुछ नहीं कह सकते। सेट खोलने का चार्ज 85 रुपये है, वो दीजिए आपके सेट का अभी इंस्पेक्शन करके बताते हैं क्या बीमारी है और कितना खर्च आएगा।' मैंने फिर भी जोर दिया कि मुझे एक बार कोई लगभग सा ही खर्चा बता दीजिए कि मैं तय कर पाऊं कि मुझे सेट बनवाना चाहिए या नया ही ले लूं।

काउंटर के अंदर पास ही में खड़े एक ''सज्जन'' मेरी बात काफी देर से सुन रहे थे। मैं भी यह गौर कर रही थी कि वो मेरी बातों में कुछ ज्यादा ही दिलचस्पी ले रहे थे। मैं इतना तो समझ रही थी कि वो भी सर्विसिंग सेंटर से ताल्लुक रखते हैं। खैर, वो जनाब थोड़ा नजदीक आए और मेरा सेट हाथों में लेकर देखने लगे और बड़ी कड़क आवाज में उस मोहतरमा से पूछा क्या हो रहा है? उसने 'सर' कहकर जवाब दिया। तक मुझे पता चला कि वो जनाब सर्विसिंग सेंटर के हेड हैं। जो भी हो मुझे लगा कि अब मेरी थोड़ी मदद हो जाएगी। पर मैं गलत थी।

उनके हाव-भाव से तो मुझे साफ समझ आ रहा था कि फोन ठीक करना तो कभी उनका काम ही नहीं रहा। आने-जाने वाली लड़कियों पर कैसे इम्पे्रशन झाड़े, इसी कोशिश में उनका वक्त बीतती है। उनके बेवजह केऐटीट्यूड को नजरअंदाज करते हुए मैंने उनसे भी पूछा,'मेरे सेट को ठीक करने में कितना खर्च आएगा?' उसने सेट को उलट-पलट कर देखा और जोर से टेबल पर पटक दिया। मेरी आधी सांस तो वहीं अटक गई। आज तक मैंने कभी सेट के साथ ऐसा बर्ताव नहीं किया था। मैंने फिर पूछा,'ठीक नहीं होगा क्या? क्या हो सकता है?'जैसे मरीज को कैंसर या ब्रेन ट्यूमर जैसी बीमारी होने की खबर देते समय कोई डॉक्टर गंभीर हो जाता है, वैसे ही आवाज में पूरी गंभीरता भरते हुए उसने कहा,'देखिए आपके सेट में खराबी तो काफी है, एक बार इंस्पेक्शन करा लीजिए, पता चल जाएगा कितना खर्च हो सकता है।' एक मोटा-मोटी खर्चा पूछने पर उसने कहा इसको बनाने में 300 रुपये भी लग सकते हैं, 1,500 रुपये भी लग सकते हैं या 3,000 का भी खर्च आ सकता है। मुझे इस आकलन में कोई तुक नजर नहीं आया। अगर मैं 300 मानकर बनाने को दे दूं और खर्चा 3,000 आ जाए, तो मैं क्या करूंगी? खैर मैंने काफी सोच-विचार कर कहा कि ठीक है आप इंस्पेक्शन कर लीजिए और 1,500 रुपये तक खर्च आता है, तो मैं बनवाउंगी। उससे ज्यादा पैसे मैं नहीं दे सकती। उसने मुझे एक फार्म थमाया और फोन को इंस्पेक्शन की लाइन में लगा दिया।

एक घंटे बाद मेरा नंबर आया और आश्चर्यजनक रूप से उसने कुल खर्चा 1,590 रुपये बताया। उसने दावा किया कि इस खर्च में मेरा फोन बिल्कुल ''नया'' हो जाएगा। मुझे लगा अगर मैं 3,000 रुपये के खर्चे के लिए तैयार हो जाती, तो वो मुझे इतना का ही बिल बता देता। मैंने उससे पूछा इसमें क्या-क्या खराबी है? उसने मुझे बताया, इसका डिस्प्ले खराब है, बैटरी भी ठीक से काम नहीं कर रही और लाइट में भी दिक्कत है। मैंने पूछा, 'इसके कवर पर भी काफी स्क्रैच आ गए हैं, आप उसे भी बदलेंगे ना?' मुझे जवाब मिला,'नहीं, आपको अलग से कवर खरीदना होगा।' मैंने भी पलट कर पूछा,'तो सेट को नया करने का क्या मतलब हुआ?'मैंने सीधा कहा,'अगर इसी खर्च में कवर बदलते हैं, तो सेट बनवाउंगी नहीं तो जाने दीजिए।' जनाब मान गए। भला पैसे किसे काटते हैं?

फिर मेरा ध्यान गया कि मेरे सेट में तो स्पीकर भी खराब है और इसका जिक्र इंस्पेक्शन में नहीं है। मैंने इसके लिए भी पूछा। जवाब सुनकर मुझे लगा शायद मुझे काउंटर के अंदर और उसे बाहर होना चाहिए। 'क्या इसका स्पीकर भी खराब है? आपने बताया नहीं।'मेरा गुस्सा अब आपे से बाहर हो रहा था। मैंने कहा, 'आपने किस तरह का इंस्पेक्शन किया है, ये बीमारी आपको समझ नहीं आई? ये भी मैं ही बताऊं तो आपने 85 रुपये लिए किस बात के हैं?'सारी बहस के बाद मैंने 1,500 रुपये के खर्चे को मानते हुए अपना फोन बनने को दे दिया। मुझे एक कागज देते हुए उसने हफ्ते भर बाद आने को कहा। उस कागज में कोई कॉन्टैक्ट नंबर नहीं था। मैंने जब नंबर मांगा, तो उन जनाब ने बड़े भाव के साथ अपना पर्सनल नंबर मेरे कागज पर लिखा और कहा,'यू कैन कॉल मी एनी टाइम, अवेलेबल 24 ऑवर, स्पेशली इन योर सर्विस।' अगर मैने अपना फोन उसे न दिया होता, तो एक थप्पड़ जरूर रसीद कर दिया होता।

मैंने कभी फोन तो नहीं किया, हफ्ते भर बाद अपना फोन लेने मैं सर्विसिंग सेंटर गई। फिर उन्हीं जनाब से पाला पड़ा। चेहरा देखते ही मन गुस्से से भर गया था। पर गुस्से को काबू में करते हुए दो मिनट की बात मानते हुए मैंने फोन के बारे में पूछा। फोन वैसा का वैसा लौटाते हुए उन्होने कहा इसमें बहुत खराबी है, यह नहीं बन सकता। गुस्सा तो इतना बढ़ गया था कि ज्वालामुखी की तरह फूटता, पर मैं कुछ कहे बिना बाहर निकल गई। मुझे समझ आ गया था कि पत्थर पर सर मारने का कोई फायदा नहीं। इन झोलाछाप डॉक्टर साहब के पास जख्म का इलाज नहीं सिर्फ नमक मिल सकता है।

The longing for the impossible

What is containment in life.. when there is lesser yearning for things and an usual sense of satiated desires. But, what an strange feeling ...